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महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण से राजनीतिक भूचाल? एक साल से टाले गए फैसले के सामाजिक-राजनीतिक परिणाम


मुंबई, 13 अक्टूबर, 2025: महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए आरक्षण के उप-वर्गीकरण के मुद्दे पर एक साल से चल रही राजनीतिक और सामाजिक रस्साकशी अब कुछ हद तक टल गई है। सर्वोच्च न्यायालय के 2024 के फैसले के बाद, राज्य सरकार द्वारा लाए गए महाराष्ट्र अनुसूचित जाति (उप-वर्गीकरण) अधिनियम, 2024 के क्रियान्वयन के लिए एक वर्ष की अवधि दी जाएगी। हालाँकि यह निर्णय महाराष्ट्र में सामाजिक न्याय की यात्रा में एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन आगे क्या होगा, इस बारे में अनिश्चितता बनी हुई है। आरक्षण लाभों के वितरण को और अधिक न्यायसंगत बनाने के उद्देश्य से लाए गए इस कानून के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिणाम क्या होंगे? यह प्रश्न आज राज्य में विभिन्न स्तरों पर चर्चा का विषय बन गया है।
महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों का अनुपात लगभग 12.5 करोड़ है, जो राज्य की कुल जनसंख्या का 11.81 प्रतिशत है (2011 की जनगणना के अनुसार)। इसमें महार समुदाय का हिस्सा 50 से 60 प्रतिशत है, जबकि मातंग, भंगी और अन्य उपजातियों का अनुपात क्रमशः 19 प्रतिशत और 7 प्रतिशत है। पिछले कुछ दशकों में, आरक्षण का अधिकांश लाभ महार समुदाय तक ही सीमित रहा, जिससे अन्य उपजातियों में असंतोष बढ़ रहा था। इस पृष्ठभूमि में, उप-वर्गीकरण की मांग ने जोर पकड़ा। 1 अगस्त, 2024 को 'पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह' मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने राज्यों को एससी और एसटी में उप-वर्गीकरण करने की अनुमति दी। इससे पहले, 2004 के 'ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य' फैसले ने इस उप-वर्गीकरण पर रोक लगा दी थी इस फैसले का लाभ उठाते हुए, राज्य सरकार ने 27 अगस्त, 2024 को एक विशेष सत्र में महाराष्ट्र अनुसूचित जाति (उप-वर्गीकरण) विधेयक पारित किया। न्यायमूर्ति संदीप बाकरे समिति द्वारा तैयार की गई सिफारिशों के अनुसार, एससी आरक्षण के 13 प्रतिशत कोटे का उप-वर्गीकरण इस प्रकार तय किया गया है: महार और संबद्ध उपजातियों के लिए 13 प्रतिशत, मातंग और संबद्ध के लिए 11 प्रतिशत, भंगी और संबद्ध के लिए 4 प्रतिशत, अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 3 प्रतिशत और खानाबदोश एससी के लिए 1 प्रतिशत। यह अधिनियम शैक्षणिक प्रवेश के लिए शैक्षणिक वर्ष 2025-26 से और सरकारी नौकरियों के लिए 1 जनवरी, 2025 से लागू होगा। हालाँकि, अब जबकि इसके कार्यान्वयन के लिए एक वर्ष का समय दिया गया है, नए शैक्षणिक सत्र और नौकरी भर्ती प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं होगा। चूँकि आरक्षण का 70 से 80 प्रतिशत लाभ महार समुदाय तक ही सीमित था, इसलिए मातंग और भंगी जैसी उपजातियों को शिक्षा और नौकरियों में हाशिए पर रहना पड़ा। 2018 की महाराष्ट्र राज्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, अन्य उपजातियों को केवल 20 से 25 प्रतिशत लाभ ही मिला। उम्मीद है कि उप-वर्गीकरण के साथ यह अनुपात बढ़कर 30 से 40 प्रतिशत हो जाएगा। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली इन उपजातियों को अब उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में अवसर मिलेंगे, जिससे सामाजिक तनाव कम होगा। हालाँकि, यह भी आशंका है कि इससे अनुसूचित जाति समुदाय की एकता कमजोर होगी। दलित आंदोलन के नेता कहते हैं, "आरक्षण सामूहिक संघर्ष का एक हथियार है, उप-वर्गीकरण इसे टुकड़ों में तोड़ सकता है।"
राजनीतिक दृष्टिकोण से, यह कानून महागठबंधन सरकार (शिवसेना-भाजपा-राकांपा) के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद रहा है। महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों में से 29 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं और राज्य के 19 प्रतिशत अनुसूचित जाति के मतदाता बड़ा प्रभाव रखते हैं। अनुसूचित जातियों के वोटों का विखंडन 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हुआ। उप-वर्गीकरण ने सरकार को मातंग और अन्य उपजातियों के मतदाताओं को आकर्षित करने का अवसर दिया है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने कहा, "यह कानून अनुसूचित जातियों के बीच सामाजिक न्याय की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करता है। इससे सभी उपजातियों को समान अवसर मिलेंगे।" हालाँकि, यह विपक्षी दलों के लिए एक चुनौती है। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) मुख्य रूप से महार समुदाय पर आधारित हैं, इसलिए यह देखना बाकी है कि उनके मतदाता झुकेंगे या नहीं। पृथ्वीराज चव्हाण जैसे नेता कहते हैं, "हम इस कानून का समर्थन करते हैं, लेकिन हमें सावधान रहना होगा कि दलित समुदाय विभाजित न हो।" इस पर विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। न्यायमूर्ति संदीप बाकरे, जिनकी समिति ने यह कानून तैयार किया था, ने कहा, "उप-वर्गीकरण वैज्ञानिक आंकड़ों पर आधारित है। आरक्षण का लाभ सबसे पिछड़ी उपजातियों तक पहुँचना ज़रूरी है। पाँच साल बाद इसकी समीक्षा ज़रूरी है।" समाजशास्त्री प्रो. विवेक मोंटेरो ने कहा, "यह फ़ैसला ऐतिहासिक अन्याय को दूर करेगा, लेकिन अगर इसे संवेदनशीलता से लागू नहीं किया गया, तो जातिगत विभाजन बढ़ेगा। महाराष्ट्र का अनुभव दूसरे राज्यों के लिए मार्गदर्शक होगा।" राजनीतिक विश्लेषक शैलेंद्र गायकवाड़ ने कहा, "यह सरकार का राजनीतिक रूप से एक चतुराई भरा कदम है, लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। यह जाँच की जाएगी कि 'क्रीमी लेयर' सिद्धांत का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है।" मातंग समुदाय के एक कार्यकर्ता ने कहा, "आखिरकार, हमें आरक्षण कोटे में हिस्सा मिलेगा। पहले, हम अदृश्य थे।" महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा शुरू की गई जाति जनगणना इस कानून को लागू करने में अहम भूमिका निभाएगी। 1,000 से ज़्यादा गाँवों में चल रहा यह सर्वेक्षण 2025 के मध्य तक पूरा होने की उम्मीद है। हालाँकि, इसे अनुच्छेद 341 के तहत केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेनी होगी, जो अभी लंबित है। कुछ अनुसूचित जाति समूहों ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में इस कानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए हैं, जिससे इसके कार्यान्वयन में देरी होने की संभावना है।
भविष्य के प्रभावों के बारे में बात करते हुए, विशेषज्ञों का कहना है कि यदि यह कानून सफल होता है, तो यह अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा बनेगा।

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