
बिहार विधानसभा 2025: मुस्लिम मतदाताओं का 'किंगमेकर' प्रभाव? आंकड़े और राजनीतिक रणनीति का खुलासा
पटना, 15 अक्टूबर, 2025 (लोकसत्ता विशेष संवाददाता): बिहार के राजनीतिक परिदृश्य पर 'मुस्लिम फैक्टर' का विवादास्पद मुद्दा एक बार फिर ज़ोर पकड़ रहा है। क्या अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव (2025) में मुस्लिम मतदाताओं का प्रभाव निर्णायक होगा? यह सवाल इस समय सभी राजनीतिक दलों के सामने खड़ा है। राज्य की लगभग 17 प्रतिशत आबादी - जिनकी संख्या लगभग 2.5 करोड़ है - कई विधानसभा क्षेत्रों में 'किंगमेकर' बन सकते हैं। लोकसत्ता के दृश्यात्मक विश्लेषण के अनुसार, जिन 68 विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं का अनुपात 15 प्रतिशत से अधिक है, वहाँ नतीजों के उलट होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। यह मुद्दा ऐतिहासिक मतदान पैटर्न, ज़िलावार वितरण और वर्तमान राजनीतिक गठबंधनों की रणनीतियों पर आधारित है। तो आइए इस 'मुस्लिम फैक्टर' पर गहराई से चर्चा करते हैं।
मुस्लिम मतदाता अनुपात: आंकड़े क्या कहते हैं?
बिहार के कुल 7.6 करोड़ मतदाताओं में से, मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 2.5 करोड़ है। 2020 के विधानसभा चुनावों में उनका मतदान प्रतिशत 58-60 प्रतिशत रहा, जो राज्य के औसत (55 प्रतिशत) से ज़्यादा है। लोकसत्ता इन्फोग्राफ़िक्स के अनुसार, राज्य के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 45 निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं का मतदान प्रतिशत 25 प्रतिशत से ज़्यादा है। इसका मतलब है कि इन निर्वाचन क्षेत्रों में नतीजे केवल 5-10 प्रतिशत वोटों के अंतर से तय हो सकते हैं, जहाँ मुस्लिम मतदाताओं का 'ब्लॉक वोट' निर्णायक होता है।
अगर हम ज़िलेवार वितरण देखें, तो उत्तर-पूर्व के सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं का मतदान प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। उदाहरण के लिए:
किशनगंज: 68 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता (2023 की मतदाता सूची के अनुसार)।
कटिहार: 43 प्रतिशत।
पूर्णिया: 39 प्रतिशत।
अररिया: 42 प्रतिशत।
सुपौल: 25 प्रतिशत।
इन जिलों में 20-25 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहाँ मुस्लिम मतदाता बहुसंख्यक या लगभग बहुसंख्यक हैं। मिथिला क्षेत्र के सीतामढ़ी (18 प्रतिशत), दरभंगा (15 प्रतिशत) और मधुबनी (20 प्रतिशत) जैसे जिलों में भी यह प्रभाव देखा जाता है। पश्चिमी बिहार के शहरी इलाकों में मुस्लिम मतदाताओं का खासा प्रभाव है, जबकि मध्य और दक्षिणी पटना (10-12 प्रतिशत), गया (8 प्रतिशत) और भागलपुर (17 प्रतिशत) मुस्लिम बहुल हैं। एक इंटरेक्टिव मानचित्र के अनुसार, सीमांचल में 15-20 सीटें, तिरहुत में 10 सीटें और मगध में 8 सीटें मुस्लिम बहुल हैं। ये आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि मुस्लिम मतदाता केवल संख्या नहीं हैं, वे राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।
ऐतिहासिक मतदान पैटर्न: राजद से महागठबंधन तक का सफर
मुस्लिम मतदाताओं का मतदान पैटर्न बिहार की राजनीति का आईना है। अगर हम 1990 के दशक की समयरेखा पर नज़र डालें:
1995-2005: लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनता दल (राजद) मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास जीत रहा था। सीमांचल में, राजद को 80 प्रतिशत से ज़्यादा मुस्लिम वोटों का समर्थन मिला। मुस्लिम मतदाताओं ने राजद को भाजपा के उदय के ख़िलाफ़ एक 'ढाल' के रूप में देखा।
2005-2010: लालू के पतन के बाद मतदाता विभाजित हो गए। कुछ मुस्लिम मतदाता कांग्रेस या जनता दल (यूनाइटेड) में चले गए। 2005 के चुनावों में, एनडीए (जदयू-भाजपा) मुस्लिम एकता के कारण जीता, जबकि 2010 में, राजद का मुस्लिम वोट शेयर घटकर 20 प्रतिशत रह गया।
2015-2020: भाजपा विरोधी भावना के बल पर, महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) को 70-75 प्रतिशत मुस्लिम वोटों का फ़ायदा हुआ। 2015 में, महागठबंधन ने 178 सीटें जीतीं, जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी हिस्सेदारी थी। 2020 में, एनडीए की जीत के बाद भी, मुस्लिम मतदाताओं ने 40 सीटों पर महागठबंधन को 65 प्रतिशत समर्थन दिया, जिसके परिणामस्वरूप किशनगंज और अररिया जैसी सीटों पर आश्चर्यजनक उलटफेर हुए। सीएसडीएस-लोकमिति सर्वेक्षण के अनुसार, "मुस्लिम मतदाता 2014 से भाजपा के खिलाफ मतदान कर रहे हैं, और 2019 के लोकसभा चुनावों में, 85 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता भाजपा के खिलाफ थे।"
चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं, "ऐतिहासिक आंकड़ों के अनुसार, जहाँ मुस्लिम मतदाता 20 प्रतिशत से अधिक हैं, वहाँ विपक्षी गठबंधन को लाभ होता है। 2015 में महागठबंधन की जीत मुस्लिम कारक के कारण ही संभव हुई थी।" यह पैटर्न दर्शाता है कि मुस्लिम मतदाता केवल भावुक नहीं होते, बल्कि रणनीतिक रूप से मतदान करते हैं।
वर्तमान राजनीतिक गठबंधन और रणनीतियाँ: मुस्लिम मतदाताओं को मनाने की होड़
2025 के चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं को मनाने के लिए राजनीतिक दल अपनी रणनीति बदल रहे हैं। महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) की रणनीति 'MY' (मुस्लिम-यादव) अंकगणित पर आधारित है। राजद के तेजस्वी यादव खुद को एक युवा और मुस्लिम नेता के रूप में पेश कर रहे हैं। वे शिक्षा में आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं का वादा कर रहे हैं। 2025 के लिए, वे सीमांचल की 25 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की योजना बना रहे हैं ताकि 90 प्रतिशत मुस्लिम समर्थन सुनिश्चित किया जा सके। तेजस्वी कहते हैं, "हम समाज के सभी वर्गों को न्याय देंगे, खासकर उन लोगों को जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं।"
दूसरी ओर, एनडीए (भाजपा-जदयू) की रणनीति 'समावेशीपन' पर आधारित है। भाजपा ने 2020 में 5-7 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे और सीमांचल में विकास के मुद्दे पर प्रचार किया था। जदयू के नीतीश कुमार अपनी 'धर्मनिरपेक्ष' छवि पर भरोसा कर रहे हैं और छोटी मुस्लिम पार्टियों (जैसे एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन कर रहे हैं। वे पश्चिम बंगाल के मुस्लिम (पिछड़े मुस्लिम) मतदाताओं को लुभाने के लिए 10 प्रतिशत मुस्लिम वोटों को लक्षित कर रहे हैं। 2020 में, एनडीए को शहरी इलाकों (जैसे पटना) में 15-20 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले थे। हालाँकि, सीमांचल में एआईएमआईएम के आने से वोटों का बंटवारा हो सकता है, जिसका फायदा एनडीए को होगा।
2023 की जाति जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 73 प्रतिशत मुसलमान
पटना, 15 अक्टूबर, 2025 (लोकसत्ता विशेष संवाददाता): बिहार के राजनीतिक परिदृश्य पर 'मुस्लिम फैक्टर' का विवादास्पद मुद्दा एक बार फिर ज़ोर पकड़ रहा है। क्या अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव (2025) में मुस्लिम मतदाताओं का प्रभाव निर्णायक होगा? यह सवाल इस समय सभी राजनीतिक दलों के सामने खड़ा है। राज्य की लगभग 17 प्रतिशत आबादी - जिनकी संख्या लगभग 2.5 करोड़ है - कई विधानसभा क्षेत्रों में 'किंगमेकर' बन सकते हैं। लोकसत्ता के दृश्यात्मक विश्लेषण के अनुसार, जिन 68 विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं का अनुपात 15 प्रतिशत से अधिक है, वहाँ नतीजों के उलट होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। यह मुद्दा ऐतिहासिक मतदान पैटर्न, ज़िलावार वितरण और वर्तमान राजनीतिक गठबंधनों की रणनीतियों पर आधारित है। तो आइए इस 'मुस्लिम फैक्टर' पर गहराई से चर्चा करते हैं।
मुस्लिम मतदाता अनुपात: आंकड़े क्या कहते हैं?
बिहार के कुल 7.6 करोड़ मतदाताओं में से, मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 2.5 करोड़ है। 2020 के विधानसभा चुनावों में उनका मतदान प्रतिशत 58-60 प्रतिशत रहा, जो राज्य के औसत (55 प्रतिशत) से ज़्यादा है। लोकसत्ता इन्फोग्राफ़िक्स के अनुसार, राज्य के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 45 निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं का मतदान प्रतिशत 25 प्रतिशत से ज़्यादा है। इसका मतलब है कि इन निर्वाचन क्षेत्रों में नतीजे केवल 5-10 प्रतिशत वोटों के अंतर से तय हो सकते हैं, जहाँ मुस्लिम मतदाताओं का 'ब्लॉक वोट' निर्णायक होता है।
अगर हम ज़िलेवार वितरण देखें, तो उत्तर-पूर्व के सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं का मतदान प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। उदाहरण के लिए:
किशनगंज: 68 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता (2023 की मतदाता सूची के अनुसार)।
कटिहार: 43 प्रतिशत।
पूर्णिया: 39 प्रतिशत।
अररिया: 42 प्रतिशत।
सुपौल: 25 प्रतिशत।
इन जिलों में 20-25 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहाँ मुस्लिम मतदाता बहुसंख्यक या लगभग बहुसंख्यक हैं। मिथिला क्षेत्र के सीतामढ़ी (18 प्रतिशत), दरभंगा (15 प्रतिशत) और मधुबनी (20 प्रतिशत) जैसे जिलों में भी यह प्रभाव देखा जाता है। पश्चिमी बिहार के शहरी इलाकों में मुस्लिम मतदाताओं का खासा प्रभाव है, जबकि मध्य और दक्षिणी पटना (10-12 प्रतिशत), गया (8 प्रतिशत) और भागलपुर (17 प्रतिशत) मुस्लिम बहुल हैं। एक इंटरेक्टिव मानचित्र के अनुसार, सीमांचल में 15-20 सीटें, तिरहुत में 10 सीटें और मगध में 8 सीटें मुस्लिम बहुल हैं। ये आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि मुस्लिम मतदाता केवल संख्या नहीं हैं, वे राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।
ऐतिहासिक मतदान पैटर्न: राजद से महागठबंधन तक का सफर
मुस्लिम मतदाताओं का मतदान पैटर्न बिहार की राजनीति का आईना है। अगर हम 1990 के दशक की समयरेखा पर नज़र डालें:
1995-2005: लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनता दल (राजद) मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास जीत रहा था। सीमांचल में, राजद को 80 प्रतिशत से ज़्यादा मुस्लिम वोटों का समर्थन मिला। मुस्लिम मतदाताओं ने राजद को भाजपा के उदय के ख़िलाफ़ एक 'ढाल' के रूप में देखा।
2005-2010: लालू के पतन के बाद मतदाता विभाजित हो गए। कुछ मुस्लिम मतदाता कांग्रेस या जनता दल (यूनाइटेड) में चले गए। 2005 के चुनावों में, एनडीए (जदयू-भाजपा) मुस्लिम एकता के कारण जीता, जबकि 2010 में, राजद का मुस्लिम वोट शेयर घटकर 20 प्रतिशत रह गया।
2015-2020: भाजपा विरोधी भावना के बल पर, महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) को 70-75 प्रतिशत मुस्लिम वोटों का फ़ायदा हुआ। 2015 में, महागठबंधन ने 178 सीटें जीतीं, जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी हिस्सेदारी थी। 2020 में, एनडीए की जीत के बाद भी, मुस्लिम मतदाताओं ने 40 सीटों पर महागठबंधन को 65 प्रतिशत समर्थन दिया, जिसके परिणामस्वरूप किशनगंज और अररिया जैसी सीटों पर आश्चर्यजनक उलटफेर हुए। सीएसडीएस-लोकमिति सर्वेक्षण के अनुसार, "मुस्लिम मतदाता 2014 से भाजपा के खिलाफ मतदान कर रहे हैं, और 2019 के लोकसभा चुनावों में, 85 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता भाजपा के खिलाफ थे।"
चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं, "ऐतिहासिक आंकड़ों के अनुसार, जहाँ मुस्लिम मतदाता 20 प्रतिशत से अधिक हैं, वहाँ विपक्षी गठबंधन को लाभ होता है। 2015 में महागठबंधन की जीत मुस्लिम कारक के कारण ही संभव हुई थी।" यह पैटर्न दर्शाता है कि मुस्लिम मतदाता केवल भावुक नहीं होते, बल्कि रणनीतिक रूप से मतदान करते हैं।
वर्तमान राजनीतिक गठबंधन और रणनीतियाँ: मुस्लिम मतदाताओं को मनाने की होड़
2025 के चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं को मनाने के लिए राजनीतिक दल अपनी रणनीति बदल रहे हैं। महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) की रणनीति 'MY' (मुस्लिम-यादव) अंकगणित पर आधारित है। राजद के तेजस्वी यादव खुद को एक युवा और मुस्लिम नेता के रूप में पेश कर रहे हैं। वे शिक्षा में आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं का वादा कर रहे हैं। 2025 के लिए, वे सीमांचल की 25 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की योजना बना रहे हैं ताकि 90 प्रतिशत मुस्लिम समर्थन सुनिश्चित किया जा सके। तेजस्वी कहते हैं, "हम समाज के सभी वर्गों को न्याय देंगे, खासकर उन लोगों को जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं।"
दूसरी ओर, एनडीए (भाजपा-जदयू) की रणनीति 'समावेशीपन' पर आधारित है। भाजपा ने 2020 में 5-7 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे और सीमांचल में विकास के मुद्दे पर प्रचार किया था। जदयू के नीतीश कुमार अपनी 'धर्मनिरपेक्ष' छवि पर भरोसा कर रहे हैं और छोटी मुस्लिम पार्टियों (जैसे एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन कर रहे हैं। वे पश्चिम बंगाल के मुस्लिम (पिछड़े मुस्लिम) मतदाताओं को लुभाने के लिए 10 प्रतिशत मुस्लिम वोटों को लक्षित कर रहे हैं। 2020 में, एनडीए को शहरी इलाकों (जैसे पटना) में 15-20 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले थे। हालाँकि, सीमांचल में एआईएमआईएम के आने से वोटों का बंटवारा हो सकता है, जिसका फायदा एनडीए को होगा।
2023 की जाति जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 73 प्रतिशत मुसलमान
मुस्लिम मतदाता अनुपात: आंकड़े क्या कहते हैं?
बिहार के कुल 7.6 करोड़ मतदाताओं में से, मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 2.5 करोड़ है। 2020 के विधानसभा चुनावों में उनका मतदान प्रतिशत 58-60 प्रतिशत रहा, जो राज्य के औसत (55 प्रतिशत) से ज़्यादा है। लोकसत्ता इन्फोग्राफ़िक्स के अनुसार, राज्य के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 45 निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं का मतदान प्रतिशत 25 प्रतिशत से ज़्यादा है। इसका मतलब है कि इन निर्वाचन क्षेत्रों में नतीजे केवल 5-10 प्रतिशत वोटों के अंतर से तय हो सकते हैं, जहाँ मुस्लिम मतदाताओं का 'ब्लॉक वोट' निर्णायक होता है।
अगर हम ज़िलेवार वितरण देखें, तो उत्तर-पूर्व के सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं का मतदान प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। उदाहरण के लिए:
किशनगंज: 68 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता (2023 की मतदाता सूची के अनुसार)।
कटिहार: 43 प्रतिशत।
पूर्णिया: 39 प्रतिशत।
अररिया: 42 प्रतिशत।
सुपौल: 25 प्रतिशत।
इन जिलों में 20-25 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहाँ मुस्लिम मतदाता बहुसंख्यक या लगभग बहुसंख्यक हैं। मिथिला क्षेत्र के सीतामढ़ी (18 प्रतिशत), दरभंगा (15 प्रतिशत) और मधुबनी (20 प्रतिशत) जैसे जिलों में भी यह प्रभाव देखा जाता है। पश्चिमी बिहार के शहरी इलाकों में मुस्लिम मतदाताओं का खासा प्रभाव है, जबकि मध्य और दक्षिणी पटना (10-12 प्रतिशत), गया (8 प्रतिशत) और भागलपुर (17 प्रतिशत) मुस्लिम बहुल हैं। एक इंटरेक्टिव मानचित्र के अनुसार, सीमांचल में 15-20 सीटें, तिरहुत में 10 सीटें और मगध में 8 सीटें मुस्लिम बहुल हैं। ये आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि मुस्लिम मतदाता केवल संख्या नहीं हैं, वे राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।
ऐतिहासिक मतदान पैटर्न: राजद से महागठबंधन तक का सफर
मुस्लिम मतदाताओं का मतदान पैटर्न बिहार की राजनीति का आईना है। अगर हम 1990 के दशक की समयरेखा पर नज़र डालें:
1995-2005: लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनता दल (राजद) मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास जीत रहा था। सीमांचल में, राजद को 80 प्रतिशत से ज़्यादा मुस्लिम वोटों का समर्थन मिला। मुस्लिम मतदाताओं ने राजद को भाजपा के उदय के ख़िलाफ़ एक 'ढाल' के रूप में देखा।
2005-2010: लालू के पतन के बाद मतदाता विभाजित हो गए। कुछ मुस्लिम मतदाता कांग्रेस या जनता दल (यूनाइटेड) में चले गए। 2005 के चुनावों में, एनडीए (जदयू-भाजपा) मुस्लिम एकता के कारण जीता, जबकि 2010 में, राजद का मुस्लिम वोट शेयर घटकर 20 प्रतिशत रह गया।
2015-2020: भाजपा विरोधी भावना के बल पर, महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) को 70-75 प्रतिशत मुस्लिम वोटों का फ़ायदा हुआ। 2015 में, महागठबंधन ने 178 सीटें जीतीं, जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी हिस्सेदारी थी। 2020 में, एनडीए की जीत के बाद भी, मुस्लिम मतदाताओं ने 40 सीटों पर महागठबंधन को 65 प्रतिशत समर्थन दिया, जिसके परिणामस्वरूप किशनगंज और अररिया जैसी सीटों पर आश्चर्यजनक उलटफेर हुए। सीएसडीएस-लोकमिति सर्वेक्षण के अनुसार, "मुस्लिम मतदाता 2014 से भाजपा के खिलाफ मतदान कर रहे हैं, और 2019 के लोकसभा चुनावों में, 85 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता भाजपा के खिलाफ थे।"
चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं, "ऐतिहासिक आंकड़ों के अनुसार, जहाँ मुस्लिम मतदाता 20 प्रतिशत से अधिक हैं, वहाँ विपक्षी गठबंधन को लाभ होता है। 2015 में महागठबंधन की जीत मुस्लिम कारक के कारण ही संभव हुई थी।" यह पैटर्न दर्शाता है कि मुस्लिम मतदाता केवल भावुक नहीं होते, बल्कि रणनीतिक रूप से मतदान करते हैं।
वर्तमान राजनीतिक गठबंधन और रणनीतियाँ: मुस्लिम मतदाताओं को मनाने की होड़
2025 के चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं को मनाने के लिए राजनीतिक दल अपनी रणनीति बदल रहे हैं। महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) की रणनीति 'MY' (मुस्लिम-यादव) अंकगणित पर आधारित है। राजद के तेजस्वी यादव खुद को एक युवा और मुस्लिम नेता के रूप में पेश कर रहे हैं। वे शिक्षा में आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं का वादा कर रहे हैं। 2025 के लिए, वे सीमांचल की 25 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की योजना बना रहे हैं ताकि 90 प्रतिशत मुस्लिम समर्थन सुनिश्चित किया जा सके। तेजस्वी कहते हैं, "हम समाज के सभी वर्गों को न्याय देंगे, खासकर उन लोगों को जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं।"
दूसरी ओर, एनडीए (भाजपा-जदयू) की रणनीति 'समावेशीपन' पर आधारित है। भाजपा ने 2020 में 5-7 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे और सीमांचल में विकास के मुद्दे पर प्रचार किया था। जदयू के नीतीश कुमार अपनी 'धर्मनिरपेक्ष' छवि पर भरोसा कर रहे हैं और छोटी मुस्लिम पार्टियों (जैसे एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन कर रहे हैं। वे पश्चिम बंगाल के मुस्लिम (पिछड़े मुस्लिम) मतदाताओं को लुभाने के लिए 10 प्रतिशत मुस्लिम वोटों को लक्षित कर रहे हैं। 2020 में, एनडीए को शहरी इलाकों (जैसे पटना) में 15-20 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले थे। हालाँकि, सीमांचल में एआईएमआईएम के आने से वोटों का बंटवारा हो सकता है, जिसका फायदा एनडीए को होगा।
2023 की जाति जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 73 प्रतिशत मुसलमान