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दिल्ली उच्च न्यायालय का बड़ा फैसला: बेदखली के आदेशों का मनमाने ढंग से इस्तेमाल कर स्वतंत्रता और आजीविका से वंचित करना गलत

नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने बेदखली के आदेशों पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे आदेशों का इस्तेमाल पूरी तरह से निराधार आधार पर किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता और आजीविका से वंचित करने के लिए नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने कहा कि ये आदेश किसी व्यक्ति की आवाजाही को प्रतिबंधित करने के लिए हैं, लेकिन इनका इस्तेमाल यंत्रवत या मनमाने तरीके से नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने यह विचार व्यक्त किए। 10 अक्टूबर के अपने आदेश में, उन्होंने कहा कि 'निर्वासन आदेश' एक असाधारण कदम है जो किसी व्यक्ति की आवाजाही को प्रतिबंधित और सीमित करता है और ऐसे आदेश 'यंत्रवत तरीके' से जारी नहीं किए जाने चाहिए। उन्होंने आगे कहा, 'इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुलिस के पास समाज में कानून-व्यवस्था और शांति बनाए रखने का कठिन कार्य है। लेकिन साथ ही, इस शक्ति का इस्तेमाल पूरी तरह से निराधार आधार पर लोगों को उनकी स्वतंत्रता और आजीविका के अधिकार से वंचित करने के लिए नहीं किया जा सकता।' न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि बेदखली के आदेश किसी अपराध का न्यायिक निर्णय नहीं हैं, बल्कि बढ़ते अपराध के संदर्भ में ये कानून-व्यवस्था के दायरे में आते हैं। इनमें व्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगाए जाते हैं, लेकिन सामान्य समय में ये प्रतिबन्ध अन्यायपूर्ण लग सकते हैं।
अदालत ने यह भी कहा कि ऐसे आदेश न केवल किसी व्यक्ति को अपने परिवार के साथ अपने घर में रहने से रोकते हैं, बल्कि उसे जीविकोपार्जन के अधिकार से भी वंचित करते हैं। ये आदेश व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर विचार करने के बाद ही जारी किए जाने चाहिए, अन्यथा ये संवैधानिक रूप से अमान्य हो सकते हैं। यह मत व्यक्त करते हुए, अदालत ने पुलिस की ज़िम्मेदारी के महत्व को स्वीकार किया, लेकिन इस बात पर ज़ोर दिया कि इसका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने रेखांकित किया कि पुलिस के पास समाज में शांति बनाए रखने की शक्तियाँ हैं, लेकिन उन शक्तियों से व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन नहीं होना चाहिए।
क्या है मामला?
यह मत न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने एक व्यक्ति की याचिका पर व्यक्त किया। इस याचिका में दिल्ली पुलिस द्वारा जारी बेदखली आदेश और दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा अनुमोदित आदेश को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता पर 2021 तक आठ आपराधिक मामले दर्ज थे और एक को छोड़कर बाकी सभी में उसे बरी कर दिया गया था। जिस मामले में उसे दोषी नहीं ठहराया गया था, उसमें उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और 500 रुपये का जुर्माना अदा किया।
याचिका में साक्ष्यों के अभाव, प्रक्रियागत अनियमितताओं और प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के आधार पर निर्वासन आदेश को चुनौती दी गई थी। पुलिस ने याचिका का विरोध करते हुए दावा किया कि याचिकाकर्ता एक खतरनाक अपराधी है और पिछले 18 वर्षों से विभिन्न अपराधों में संलिप्त रहा है, जिससे जन सुरक्षा को खतरा है। लेकिन न्यायाधीश ने अपने आदेश में कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ दर्ज सभी मामलों में उसे बरी कर दिया गया है। किसी व्यक्ति के खिलाफ कुछ मामले दर्ज होने मात्र से निर्वासन आदेश जारी करना उचित नहीं है।
अदालत ने याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाया और निर्वासन आदेश को अमान्य घोषित कर दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे आदेशों के लिए ठोस सबूत और कारण होने चाहिए। अन्यथा, ये व्यक्ति के स्वतंत्रता और आजीविका के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। यह मामला दिल्ली पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है और भविष्य में ऐसे आदेश जारी करने में अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
इस निर्णय के निहितार्थ
यह निर्णय केवल इसी मामले तक सीमित नहीं है, बल्कि देश भर में बेदखली आदेशों की प्रक्रिया पर प्रभाव डाल सकता है। न्यायालय ने एक बार फिर स्पष्ट किया है कि पुलिस के पास कानून-व्यवस्था बनाए रखने का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार संवैधानिक सीमाओं के भीतर होना चाहिए। अक्सर, पुलिस ऐसे आदेशों का इस्तेमाल संदिग्धों को परेशान करने के लिए करती है, लेकिन अब यह मामला एक न्यायिक मिसाल कायम करेगा। इसलिए, पुलिस को भविष्य में बेदखली आदेश जारी करने से पहले साक्ष्य और प्रक्रिया का पालन करना होगा।
न्यायाधीश ने यह भी कहा कि बेदखली आदेश अपराध रोकने के लिए होते हैं, लेकिन इनसे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए। यह दृष्टिकोण संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, जो स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार की रक्षा करते हैं। इस निर्णय से, कई व्यक्तियों के लिए अपने अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायालय के द्वार खुल गए हैं।
यह निर्णय दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायिक सक्रियता का एक उदाहरण है, जिसने प्रशासनिक शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए कदम उठाए हैं। यह निर्णय इस बात पर प्रकाश डालता है कि समाज में शांति बनाए रखने में पुलिस की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे व्यक्ति के अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए।

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